डॉ
सुशीलकुमार पाण्डेय ′साहित्येन्दु′ द्वारा रचित कौण्डिन्य रचना पर एक टिप्पणी
साहित्य
दो प्रकार का होता है। ज्ञानात्मक साहित्य एवं रसात्मक साहित्य। कई बार
ज्ञानात्मक साहित्य को रसात्मक साहित्य की प्रविधि एवं पद्धति से लिखा जाता है.
उसे अधिक पठनीय बनाने के लिए। डॉ सुशीलकुमार पाण्डेय ′साहित्येन्दु′ द्वारा रचित कौण्डिन्य
रचना इसी कोटि में आती है। इधर अप्रवासी साहित्य तथा तुलनात्मक साहित्य की दृष्टि
से जो एक नया अध्ययन - क्षेत्र खुला है, उसे ध्यान में रखते हुए कौण्डिन्य पर कुछ
कहना महत्वपूर्ण हो सकता है। लेखक की इस कृति के पूर्व लगभग 100 से भी अधिक
पृष्ठों में विभिन्न विद्वानों द्वारा दिए गए अभिमत प्रकाशित किए गए हैं जो 1984
से लेकर 2003 तक के समय में प्राप्त हुए हैं। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 2012 का
है और इसे कौण्डिन्य सेवा समिति ने प्रकाशित किया है। इसके मुखपृष्ठ पर भारत तथा
कंबोडिया दिखाता नक्शा है जिस पर प्राचीन नावों को चित्र चस्पाँ है, कुछ बौद्ध
साधुओं के चित्र है...। लेखक ने इसे महाकाव्य कहा है और निर्देशित किया है कि भारत
तथा दक्षिण पूर्व एशिया के प्राचीन सांस्कृतिक संबंधों पर आधारित है। यह कृति
समर्पित है सुवर्णभूमि (कंबोडिया) के रक्तसंबंधियों यानी कंबोडियायी भाई-बहनों को।
इस पुस्तक में लेखक ने प्राचीन नक्शे भी दिए हैं। इसी बीच लेखक ने मुझे जानकारी दी
कि वे दक्षिण पूर्व एशिया से संबंधित एक और भी महाकाव्य वे लिख रहे हैं। इससे यह
स्पष्ट होता है कि डॉ सुशीलकुमार पाण्डेय काव्य-स्वरूप के माध्यम से भारत के पडौसी
राज्यों एवं राष्ट्रों के साथ के भारत के प्राचीन संबंधों को पुनः पुनर्ज्जीवित
करना चाहते हैं। यह ज्ञान का विषय है। इस दृष्टि से इसका अध्ययन किया जा सकता है।
इसका
अध्ययन एक स्वतंत्र काव्य-कृति के रूप में भी किया जा सकता है। एक समानांतर उदाहरण
के रूप में ‘कामायनी’ एवं
लोकायतन के उदाहरण लिए जा सकते हैं। हम ‘कामायनी’ को पढ़ते हैं और प्रभावित होते हैं किन्तु लोकायतन पढ़ते हैं तो तभी
प्रभावित होते हैं जब हमें अरविंद दर्शन में रुचि हो। अर्थात् अरविंद दर्शन के लिए
लोकायतन हमारे लिए महत्वपूर्ण हो सकता है पर प्रत्यभिज्ञा दर्शन के लिए हम ‘कामायनी’ नहीं पढ़ते। हम ‘कामायनी’
उसके सौन्दर्य एवं काव्यत्व के लिए पढ़ते हैं। मृत और थीज गए लहू
में एक हलचल मचाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में को दौरान प्रसाद जैसे रचनाकार
भारतीय संस्कृति को उजागर करने की कोशिश कर रहे थे। तब के लक्ष्य को सामने रख कर
लिखी गयी रचनाएं आज भी उस अर्थ में महत्वपूर्ण ही मानी जाती हैं। परन्तु प्रसाद की
सभी रचनाओं में काव्यत्व ठीक वैसा नहीं है जैसा ‘आँसू’ और ‘कामायनी’ में है। अतः
काव्यत्व रचना की एक अनिवार्य शर्त तो है ही। हालाँकि पाण्डेयजी ने इसकी कथा को
ध्यान में रख कर ‘‘कामायनी"
का स्मरण किया है, परन्तु
कौण्डिन्य को हम ‘‘कामायनी’ ’ के साथ नहीं रख सकते हैं। किसी भी दृष्टि से
नहीं – न कथा के बरतने की दृष्टि से, न चरित्रों के उभार की दृष्टि से और नहीं
उद्देश्य की गरिमा की दृष्टि से। ‘‘कामायनी’ ’ काव्य में प्रस्तुत अपने समय का
निचोड़ है। लेखक स्वयं इस बात से अवगत हैं ही।
अन्तर्विद्याकीय
अध्ययन आज के हमारा समय की माँग हो गया है। इस के परिणाम स्वरूप साहित्य को देखने
की कई दृष्टियां विकसित हुई हैं। इसी को ध्यान में रख कर कहा जा सकता है कि कौण्डिन्य
राजनीतिक दृष्टि से यह भारत के प्राचीन वर्चस्व तथा व्याप को रेखांकित करती है । प्रसिद्ध
निबंधकार कुबेरनाथ राय की प्रेरणा से रचित यह काव्य, उन्हीं के एक निबंध कौण्डिन्य
गाथा से वस्तु ग्रहण करता है। लेखक को एक पत्र में वे लिखते हैं- इसके अलावा एक
बिल्कुल नयी थीम है महानायक कौण्डिन्य की। कौण्डिन्य भारतीय कोलम्बस था। कम्पूचिया
और चीन के पुराणों के अनुसार उसने कम्पूचिया का अन्वेषण तथा भारतीयता का बीजारोपण
किया था। वहाँ की रानी से परिणय कर सूर्यवंश की नींव डाली। (पाण्डेय)
चीन
और कंबोडिया के पुराणों में लेखक को यह जानकारी मिली कि जम्बूद्वीप से एक ब्राह्मण
कौण्डिन्य आया था. वह अश्वत्थामा का शिष्य थे। वह अश्वत्थामा का त्रिशूल लेकर आया
ता। जहाँ उसकी तरी भिड़े वहीं पर त्रिशूल फेंक ज़मीन दखल करने का आदेश था। तट की
रानी का प्रतिरोध तथा कौण्डिन्य द्वारा रानी के ऊपर अपने उत्तीय का निक्षेप। बस
इतना ही इतिहास है।
इस
कृति में रचनाकार का उद्देश्य कौण्डिन्य नामक प्राचीन भारतीय ऋषि की कंबुज यात्रा
तथा वहाँ जा कर प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रचार का विवरण देना है। अपने
विद्यार्थी काल में कौण्डिन्य की इच्छा मानव सेवा करना था , गुरु वाणी से वे
प्रभावित थे, गुरु ने उनकी इच्चा जान कर मानव सेवा धर्म के लिए कंबुज जाने का
सुझाव दिया। कवि ने इस प्रकार के जितने भी विवरण दिए हैं , सभी उनकी काव्य-सृजन के
उदाहरण हैं।
देखा
जाए तो इतनी सूक्ष्म एवं अपनी होते हुए भी अन्जान औसी कथा पर यह काव्य लिखना
सामान्य काम नहीं है। । सार्क देशों का एक
समूह बन जाने के बाद यह कृति महत्वपूर्ण हो सकती थी, अगर इसमें कुछ अन्तर्भुक्त
विरोधाभास नहीं होते। असल में यही इस काव्य की कमज़ोरी- उद्धेस्य की दृष्टि से
नहीं अपितु रचनात्मकता की दृष्टि से मानी जानी चाहिए।[i]
कौण्डिन्य के आरंभ में बड़ी सादगी और भोलेपन से नायक मानव-सेवा करने की आकांक्षा
रखता है, गुरु प्रेरित करते हैं और ताते हैं कि कंबुज जाओ। पर मानव-सेवा वर्चस्व
में बदल जाता है जब असवत्थामा अपना उद्देश्य और उसकी पूर्ती के लिए त्रिशूल प्रदान
करता है। काव्य के आरंभ में स्वाती के प्रति प्रेम , स्वाती का उसे इस महान्
उद्देश्य के लिए जाने की अनुमति देना, अंत में कौण्डिन्य द्वारा यह कहना कि मेरे
जीवन के उत्तम क्षण वही थे तो स्वाती के साथ संबंद्ध थे, बहुत चौंकाने वाला है।
यानी एक तो कौण्डिन्य अपने मूल लक्ष्य से हट जाता है, मानव सेवा के स्थान पर सभ्य
बनाने के बहाने वर्चस्व प्राप्त करने का निर्णय, उसके लिए जो मददरूप बनी उस
चित्रा-सोमा के साथ यह अन्याय ही कहा जाएगा कि कंबुज के लोगों के बीच स्वाती को
याद करना अर्थात् चित्रा-सोमा की आवश्यकता पूरी हो गयी अब उसकी आवश्यकता भी नहीं
रही। उद्देश्य प्राप्ति के लिए स्त्री से विवाह करना और उसकी पूर्ति के बाद उसके
स्थान को गौण बना देना, पुरुष सत्तात्मकता का उदाहरण है।
अतः
यह रचना एक अन्तर्विद्याकीय अध्ययन के रूप में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत के प्रभाव,
भारत के साथ पड़ोसी देशों के संबंध, प्राचीन काल में दक्षिण पूर्वी एशिया में
स्त्री का स्थान, भारत के यात्रा मार्ग आदि अनेक विषय हैं जिन पर काम किया जा सकता
है।
रंजना
अरगडे
पुस्तक का नाम- कौण्डिन्य
लेखक- डॉ सुशीलकुमार पाण्डेय 'साहित्येन्दु'
प्रकाशक- कौण्डिन्य साहित्य सेवा समिति
पटेल नगर, कादीपुर, सुलतानपुर उ.प्र.
प्रकाशन वर्ष- 2012
मूल्य-450-00
पृष्ठ संख्या- 298
[i] दिनकर रचित उर्वशी के साथ भी इसी तरह
की समस्या। रचना का उद्देश्य मातृत्व है और रचना का सर्वाधिक श्रेषेठ भाग उर्वशी और
पुरुरवा के प्रणय कथा से संबंद्ध है।
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