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बुधवार, 6 नवंबर 2013

एक सवाल- तीन रचनाकार

(यह सवाल मैं अपने आप से पूछती हूँ कि क्यों मुझे अपनी पसंद के एक छोर पर नासिरा शर्मा का कथा साहित्य अच्छा लगता है तो दूसरे छोर पर राजी सेठ और इनके बीच में कहीं मैं सूर्यबाला को भी पसंद करती हूँ ।[1] हो सकता है कि विमर्श- आलोचक  मेरी बात से सहमत न हों और यों भी मैं कोई कथा –आलोचक तो हूँ नहीं, अतः मेरे इस लेख को आप चाहें गंभीरता से न लें पर मेरी इस बात की गंभीरता अवश्य समझने की कोशिश करें कि हमारे बहुलतावादी जीवन और संस्कृति में यह बिल्कुल संभव है कि हमें नितांत भिन्न ध्रुवों पर स्थित रचनाकार अच्छे लगें।  यह हम ही हैं जो बाजरे की मोटी रोटी को बैंगन के भुरते को भी पसंद करते हैं अथवा बेक्ड पाईनैपल मैकरोनी भी पसंद करते हैं और दाल बाटी भी पसंद करें। मुझे मालूम है कि आलोचना लिखना, भोजन के इन पदार्थों जैसी सतही बात नहीं है , वह एक गंभीर कार्य हैं जिसपर  कइयों का साहित्यिक  जीवन बनाया या बिगाड़ा जा सकता है। इसीलिए आलेचक को चाहिए कि विमर्श के सीमित और सँकरे इलाके में रचनाकारों के साहित्यिक जीवन को फालतू बताकर उनके साहित्य का एक तरह से अवमूल्यन न करें। साहित्य की आलोचना एक गंभीर काम है , इसका हमें ध्यान रखना होगा और लगातार याद भी  रखना होगा। हा, अगर आप घोर रूप से विमर्शवादी हैं और इस के आगे अपने को भी नहीं बख़्शते, तब बात और है, पर अगर केवल शौकिया विनर्शवादी हैं, कि साहित्य में कुछ कहते हैं और जीवन में कुछ होते हैं, तो कम से कम उन लेखकों का ध्यान रखना चाहिए जो बड़ी ईमानदारी से लिखते हैं, पर होता यह है कि रचनाकार जैसे ही शौकिया विमर्शधारकों की धार पर आते हैं, कट के  अलग हो जाते हैं। ऐसे" बदनसीब"  लेखक केवल और केवल अपनी रचनात्मक ऊर्जा के कारण ही जीवित रहते हैं। । वैसे इस संबंध में मैं अधिक कुछ इसलिए नहीं कह सकती क्योंकि मैं कोई लेखक तो नहीं हूँ और आलोचक केवल इसलिए हूँ क्योंकि अध्यापक हूँ. ।[2] अतः अपनी मर्यादा और हैसियत समझते हुए जो सवाल अपने आप से करती हूँ , और अपने से की हुई यह गुफ्तगू आप तक पहुँचा रही हूँ।)
1
       अपनी आलोचनात्मक दृष्टि से बँधे-बँधाए रास्तो पर चलना अथवा बंधी हुई क्यारियों में बहते जल के समान आलोचना दृष्टि किसी भी प्रकार का रिस्क नहीं लेती है। वह अपने तय किए हुए दायरे में से बाहर जाना पसंद नहीं करती क्योंकि जो सीमा को लांघ लेता है उसके अपहृत होने या भ्र्ष्ट होने के पाठ को वे अच्छी तरह समझते हैं। जैसे कबड्डी में आप सामने वाले दल के सदस्य को अपने क्षेत्र में खींच कर चित्त करते हैं वैसे ही इन संकीर्ण विचारधारात्मक , अथवा विमर्श आलोचक अपने पसंद किए हुए दायरें में किसी भी लेखक को खींच कर उसका मूल्यांकन करते हैं, चित्त करते हैं अथवा सिर पे चढ़ाते हैं।  परंपरागत आलोचना यह अपेक्षा नहीं करती कि लेखक के लेखन और उसक जीवन में कोई अनिवार्य संबंध हो ही, परन्तु विचारधारा अथवा/एवं  विमर्श यह अपेक्षा रखती है कि आलोचक का जीवन, उसकी जीवन - दृष्टि और उसकी आलोचना दृष्टि का सम-सबंधित होना अनिवार्य है। अर्थात् जैसे आलोचना में मार्क्सवादी और जीवन में सामंती या पूँजीवादी होना  एक प्रकार का पाखंड है,  उसी तरह विमर्श के विपरीत अथवा भिन्न जीवन दृष्टि रखना और जीवन जीने को मैं लगभग आपराधिक मानती हूँ।[3]  इस अर्थ में स्त्री पैरोकार माने वाले राजेन्द्र यादव(स्व) और उनके बलबूते पर अपने को स्त्रीवादी कहलाने वाली लेखिकाओं एवं आलोचकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण पाठ है।
       मेरा प्रश्न है कि भिन्न प्रकार के लेखकों को पसंद करना किस साहित्य-दृष्टि का परिणाम है। कहानी के ऐसे कौन-से मापदंड हैं जिन पर तीनों खरी उतरती हैं और मैं उन्हें पसंद करती हूँ; अथवा सामान्य साहित्य की अथवा साहित्य की किस समान्य समझ के आधार पर मैं इन भिन्न प्रकृति की रचनाकारों को पसंद करती हूँ। क्या इनमें कोई एक बात समान है। इनमें संभवतः एक बात तो यही समान है कि इन तीनों रचनाकारों की नायिकाएं या स्वयं लेखिका एक प्रोटोगॉनिस्ट की तरह नारी स्वतंत्रता या संघर्ष का झंड़ा ले कर , नारे लगाती हुई नहीं दिखती है। तो इसका अर्थ क्या यह होना चाहिए कि मैं नारी स्वतंत्रता की झंडाधारियों के साथ नहीं हूँ। इस प्रश्न का उत्तर बाद में देंगे।
बहरहाल, ये तीनों रचनाकार नारीवादी मापदंडों से एक प्रभावशाली रचनाकार के रूप में खरी न उतरती हों, इससे मुझे इसलिए फर्क नहीं पड़ता क्योंकि इन तीनों रचनाकारों के पढ़ते हुए मुझे मानव जीवन एवं संबंधों की ऐसी जटिलताओं का पता चलता है , जिसकी अन्यथा मैंने कल्पना भी नही की होती। अथवा मैं जिन चीज़ों को समझती हूँ, उन्हें इतनी स्पष्टता से संभवतः नहीं कह पाती। फिर जीवन की समग्रता को चित्रित करने के कारण जीवन के सामान्य या सूक्ष्म अनुभवों का पता चलता है जिसके विषय में हम गम्भीर नहीं होते हैं। आप मेरे इस लेखन को नारीवाद के विरुद्ध एक बिगुल न समझें, परन्तु चूँकि मुझे लगा कि नारीवाद के नाम पर हिन्दी की कुछ महत्वपूर्ण रचनाकार हाशिए में जा रही हैं तो मुझे लगा कि मुझ जैसी एक नॉन-क्रिटिक ही उनकी बात करे। कम-से-कम मैं अपने को उन छद्म नारीवादी आलोचकों में शामिल नहीं करूंगी जो जीवन मे अपने निर्णय पुरुष सत्तात्मक तंत्र के पक्ष में लेती हैं और आलोचना में नारीवादी होने का बिगुल बजाती हों।
       नासिरा शर्मा का कथ्य और कथ्य की विविधता मुझे हमेशा आकर्षित करती है। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का ऐसा आईना है नासिरा का लेखन कि जिसमें एक नागरिक के रूप में बार-बार अपना चेहरा देखना चाहेंगे। राजी सेठ असंभव लगने वाले भावों, विचारों एवं संवेदना को सही सही शब्दों में रखती हैं। और सूर्यबाला एक आबशार की तरह बहते हुए आती है और समग्र रूप से आपको भिगो कर इस बात का इंतज़ार करती हैं कि देखूं, क्या सचमुच अच्छी तरह से भीगें या नहीं वरना अगली कहानी में इस बात का ध्यान रखेंगी।   
       नासिरा शर्मा की भाषा लैंडस्केपिक है तो राजी सेठ की कहानियों की भाषा का पोत मीनीयेचर पेंटिंग की तरह है और सूर्यबाला की भाषा में भावनात्मकता को केन्द्रीयता प्रदान करना मुख्य उद्देश्य लगता है।  सशक्त भाषा की स्वामिनी तो तीनों ही हैं पर एक अपने लैंडस्केपिक व्याप के कारण  विशिष्ट है तो दूसरी की संरचना अपनी आलंकारिकता के कारण आपको आश्चर्य में डालती है। सूर्यबाला की भाषागत सादगी आपको घेर लेती है। उन्हें पाठक तक अपनी बात को पहुँचाने के लिए  किसी भी तरह का कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। सूर्यबाला का कहानियाँ शहरी जीवन के उन संवेदनशील अनुभूतियों को हमारे सामने रखती हैं जो जीवन का एक अनिवार्य अंग है। स्त्रियों के परस्पर और आपसी संबंधों को ये लेखिकाएं बड़ी नज़ाकत से उठाती हैं। पारिवारिक संबंधों की मर्यादाओं एवं मूल्यों की रक्षा जिनकी कहानियों में केन्द्रीय चिंता के रूप में दिखाई पड़ती है ऐसी ये लेखिकाएं कहानी को जीवन अनुभव का माध्यम बनाती हैं। इन लेखिकाओं का नारीवादी आलोचना के दायरे में न गिना जाना उनकी दीर्घजीविता का भी प्रमाण है। ये कहानियाँ नारीवादी दायरे के बाहर होने के कारण , ऐसा कहा जा सकता है कि जब नारीवाद का प्रभाव घटेगा और सच्चे साहित्य की अथवा कहें साहित्य का वास्तविक मूल्यांकन होगा, तब भी ये कहानियाँ बनी रहेंगी जैसे इस वर्तमान पीढ़ी को भी प्रेमचंद अब भी बहुत पसन्द आते हैं। आज ऐसी कितनी ही रचनाएं काल के गर्त में खो गई हैं जो किसी समय मार्क्सवादी होने का नाते चर्चा में थीं।  विमर्शों  तथा विचारधाराओं को अगर कोई रचना पार कर जाए, तब तो वह कालजयी होगी, वरना विचारधारा और विमर्श के अंत के साथ- ही साथ रचना का आयुष्य समाप्त हो जाएगा।
       इस भूमिका के बाद मेरा विचार क्रमशः इन तीन रचनाकारों पर अपने विचार प्रस्तुत करना है।
      




[1] इसी तरह मुझे प्रेमचंद और निर्मल वर्मा दोनों ही रचनाकार अच्छे लगते हैं।  
[2] शोध प्रबंध प्राकशित करवा लेना या सेमीनार के लिए प्रपत्र लिखने से और उन्हें प्रकाशित करने से कोई आलोचक नहीं बन जाता ।
[3] अपने हालिया साक्षात्कार में राजेंद्र जी ने कहा कि यदि उनकी ही तरह मन्नू जी ने भी संबंधों के मामले में स्वच्छंद जीवन जिया होता तो उन्होंने मन्नू को माफ़ नहीं किया होता. स्त्री-दलित मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता के साथ स्त्री और दलित विमर्श को हिंदी साहित्य के केंद्र में लेने वाले राजेंद्र जी की यह स्वीकारोक्ति उनके कई प्रशंसकों को चोट पहुंचा सकती है, या उनके आलोचक उन पर हमलावार हो सकते हैं.  'पर्सनल इज पोलिटिकल' के आधार से स्त्रीवादी चिन्तक राजेन्द्र जी को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं. इस सब से बेफिक्र राजेन्द्र जी ने यह बयांन किया है.
राजेन्द्र जी की यही खासियत है. वे चाहते तो एक हिप्पोक्रेट की तरह यह भी कह सकते थे कि 'उन्हें अपनी पत्नी के ऐसे रिश्तों से बहुत फर्क नहीं पड़ता क्योंकि संबंधो के मामले में जैसा पुरुष और स्त्री दोनों के आचरणों के अलग-अलग मानदंड नहीं हो सकते ,' आखिर राजेंद्र जी अपने समग्र चिंतन में स्त्री की 'दैहिक स्वतंत्रता' की ही तो बात करते हैं, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें मन्नू जी के विवाहेत्तर रिश्तों से ऐतराज होता और वे उन्हें कभी माफ़ नहीं कर पाते. राजेंद्र जी का यह वक्तव्य 'पितृसत्तात्मक समाज ' में अनुकूलित पुरुष का वक्तव्य है, जो स्त्रीवादी होने की प्रक्रिया में तो है लेकिन अपनी संरचना से मुक्त नहीं हो पाया है . यह एक मानसिक द्वैध की स्वीकारोक्ति है- दरअसल यह स्त्रीवाद के लिए एक पाठ भी है, खासकर उस व्यक्ति, साहित्यकार और सम्पादक की स्वीकारोक्ति होने के परिपेक्ष्य मे, जिसने सिद्दत के साथ और बड़ी इमानदारी से अपनी स्त्री और दलित प्रतिबद्धताएं, बनाये रखी है.(आशिष कुमार अंशु के ब्लॉग बतकही से उद्धृत

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