साथियो,
आज से इस नए ब्लॉग का आरंभ कर रही हूँ। पिछला ब्लॉग काम का था, पर व्यवस्थित नहीं हो पाया था। इस ब्लॉग पर मेरी कोशिश रहेगी कि मैं संदेश अधिक व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत कर सकूं। आज के दिन एक कविता सुनिएः
कला
शमशेरबहादुर सिंह
( इतने पास अपने संग्रह से
(राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 1980 द्वितीय सं 1988))
आज से इस नए ब्लॉग का आरंभ कर रही हूँ। पिछला ब्लॉग काम का था, पर व्यवस्थित नहीं हो पाया था। इस ब्लॉग पर मेरी कोशिश रहेगी कि मैं संदेश अधिक व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत कर सकूं। आज के दिन एक कविता सुनिएः
कला
संगीत की धार
मोड़ देती है शमशीर की धार
तोपों को ठण्डा कर देती है, सियासत को सुकून बख़्शती है
और दिलों को
मोह लेती है, मूरख बना देती है।
कला सबसे बड़ा संघर्ष बन जाती है
मनुष्य की आत्म का-
प्रेम का कँवल कितना विशाल हो जाता है
आकाश जितना
और केवल उसीके दूसरे अर्थ सौन्दर्य हो जाते हैं
मनुष्य की आत्मा में।
सायंस एक धड़कन हो जाती है ज्ञानस्वरूप
और मनुष्य का समाज एक हो जाता है
संगीत से।
युद्ध को सबसे अधिक भय संगीत से है
(क्योंकि वह कहीं न कहीं अटामिक विस्फोट को
वश में कर लेता है)
शमशेरबहादुर सिंह
( इतने पास अपने संग्रह से
(राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 1980 द्वितीय सं 1988))