इस बार निज भाषा में डॉ. अमरनाथ जी का रेख है। आप अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें।
हिन्दी के संदर्भ में आपके विचार भी आमंत्रित हैं।
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हिन्दी को टूटने से बचाएँ : संदर्भ आठवीं
अनुसूची
डॉ. अमरनाथ
संसद का आगामी मानसून सत्र हमारी राजभाषा हिन्दी के लिए सुनामी का कहर बनकर
आएगा और उसे चन्द मिनटों मे टुकड़े-टुकड़े करके छिन्न-भिन्न कर देगा। चन्द मिनटों
में इसलिए कह रहा हूं क्योंकि गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने विगत 17 मई 2012 को लोक
सभा के सांसदों को आश्वासन दे रखा है कि इसी सत्र में भोजपुरी सहित हिन्दी की कई
बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने वाला बिल संसद में पेश होगा।
यदि हमने समय रहते इस बिल के पीछे छिपी साम्राज्यवाद और उसके दलालों की साजिश का
पर्दाफाश नहीं किया तो हमें उम्मीद है कि यह बिल बिना किसी बहस के कुछ मिनटों में
ही पारित हो जाएगा और हिन्दी टुकड़े-टुकड़े होकर विखर जाएगी। इस देश के गृहमंत्री
की जबान से इस देश की राजभाषा हिन्दी के शब्द सुनने के लिए जो कान तरसते रह गए उसी
गृहमंत्री ने हम रउआ सबके भावना समझतानीं जैसा
भोजपुरी का वाक्य बोलकर भोजपुरी भाषियों का दिल जीत लिया। सच है भोजपुरी भाषी आज
भी दिल से ही काम लेते हैं, दिमाग से नहीं, वर्ना, अपनी अप्रतिम ऐतिहासिक विरासत,
सांस्कृतिक समृद्धि, श्रम की क्षमता, उर्वर भूमि और गंगा यमुना जैसी जीवनदायिनी
नदियों के रहते हुए यह हिन्दी भाषी क्षेत्र आज भी सबसे पिछड़ा क्यों रहता ? यहाँ के लोगों को तो अपने हित- अनहित की भी समझ नहीं है। वैश्वीकरण के इस युग
में जहां दुनिया के देशों की सरहदें टूट रही हैं, टुकड़े टुकड़े होकर विखरना हिन्दी भाषियों की
नियति बन चुकी है।
सच है, जातीय चेतना जहाँ सजग और मजबूत नहीं
होती वहाँ वह अपने समाज को विपथित भी करती हैं। समय-समय पर उसके भीतर विखंडनवादी
शक्तियाँ सर उठाती रहती हैं। विखंडन व्यापक साम्राज्यवादी षड्यंत्र का ही एक
हिस्सा है। दुर्भाग्य से हिन्दी जाति की जातीय चेतना मजबूत नहीं है और इसीलिए वह
लगातार टूट रही है।
अस्मिताओं की राजनीति आज के युग का एक
प्रमुख साम्राज्यवादी एजेंडा है। साम्राज्यवाद यही सिखाता है कि थिंक ग्लोबली
एक्ट लोकली । जब संविधान बना तो मात्र 13 भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल थीं।
फिर 14, 18 और अब 22 हो चुकी हैं। अकारण
नहीं है कि जहाँ एक ओर दुनिया ग्लोबल हो रही है तो दूसरी ओर हमारी भाषाएं यानी
अस्मिताएं टूट रही हैं और इसे अस्मिताओं के उभार के रूप में देखा जा रहा है। हमारी
दृष्टि में ही दोष है। इस दुनिया को कुछ दिन पहले जिस प्रायोजित विचारधारा के
लोगों द्वारा गलोबल विलेज कहा गया था उसी विचारधारा के लोगों द्वारा हमारी
भाषाओं और जातीयताओं को टुकड़ो-टुकड़ो में बांट करके कमजोर किया जा रहा है।
भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग समय-समय पर संसद
में होती रही है। श्री प्रभुनाथ सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, संजय निरूपम, अली अनवर
अंसारी, योगी आदित्य नाथ जैसे सांसदों ने समय-समय पर यह मुद्दा उठाया है। मामला
सिर्फ भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने का नहीं है। मध्यप्रदेश से अलग होने के
बाद छत्तीसगढ़ ने 28 नवंबर 2007 को अपने राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी घोषित किया
और विधान सभा में प्रस्ताव पारित करके उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल
करने की माँग की। यही स्थिति राजस्थानी की भी है। हकीकत यह है कि जिस राजस्थानी को
संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग जोरों से की जा रही है उस नाम की
कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। राजस्थान की 74 में से सिर्फ 9 ( ब्रजी, हाड़ौती,
बागड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी) बोलियों को
राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की मांग की जा रही है। बाकी बोलियों पर
चुप्पी क्यों ? इसी तरह छत्तीसगढ़ में 94 बोलियां हैं जिनमें सरगुजिया और हालवी
जैसी समृद्ध बोलियां भी है। छत्तीसगढ़ी को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ने वालों
को इन छोटी-छोटी उप बोलियां बोलने वालों के अधिकारों की चिन्ता क्यों नहीं है ? पिछले दिनों केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री नवीन जिंदल ने लोक सभा में एक चर्चा
को दौरान कुमांयूनी-गढ़वाली को संवैधानिक दर्जा देने का आश्वासन दिया। इतना ही
नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि यदि हरियाणा सरकार हरियाणवी के लिए कोई संस्तुति
भेजती है तो उसपर भी विचार किया जाएगा। मैथिली तो पहले ही शामिल हो चुकी है। फिर अवधी और ब्रजी ने कौन सा अपराध किया है कि
उन्हें आठवीं अनुसूची में जगह न दी जाय जबकि उनके पास रामचरितमानस और पद्मावत
जैसे ग्रंथ है ? हिन्दी साहित्य के इतिहास का पूरा मध्य काल तो ब्रज भाषा
में ही लिखा गया। इसी के भीतर वह कालखण्ड भी है जिसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग
( भक्ति काल ) कहते हैं।
भागलपुर विश्वविद्यालय में अंगिका में भी एम.ए. की पढ़ाई होती है। मैने वहाँ
के एक शिक्षक से पूछा कि अंगिका में एम.ए. की पढ़ाई करने वालों का भविष्य क्या है ? उन्होंने बताया कि उन्हें सिर्फ डिग्री से मतलब होता है विषय से नहीं। एम.ए.
की डिग्री मिल जाने से एल.टी. ग्रेड के शिक्षक को पी.जी. (प्रवक्ता) का वेतनमान
मिलने लगता है। वैसे नियमित कक्षाएं कम ही चलती हैं। जिन्हें डिग्री की लालसा होती
है वे ही प्रवेश लेते हैं और अमूमन सिर्फ परीक्षा देने आते हैं। जिस शिक्षक से
मैने प्रश्न किया उनका भी एक उपन्यास कोर्स में लगा है जिसे इसी उद्देश्य से
उन्होंने अंगिका में लिखा है मगर हैं वे हिन्दी के प्रोफेसर। वे रोटी तो हिन्दी की
खाते हैं किन्तु अंगिका को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसके
पीछे उनका यही स्वार्थ है। अंगिका के लोग अपने पड़ोसी मैथिली वालों पर आरोप लगाते
हैं कि उन लोगों ने जिस साहित्य को अपना बताकर पेश किया है और संवैधानिक दर्जा
हासिल किया है उसका बहुत सा हिस्सा वस्तुत: अंगिका का है। इस
तरह पड़ोस की मैथिली ने उनके साथ धोखा किया है। यानी, बोलियों के आपसी अंतर्विरोध।
अस्मिताओं की वकालत करने वालों के पास इसका क्या जवाब है ?
संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हिन्दुस्तान की कौन सी भाषा है जिसमें
बोलियां नहीं हैं ? गुजराती में सौराष्ट्री, गामड़िया, खाकी, आदि, असमिया में
क्षखा, मयांग आदि, ओड़िया में संभलपुरी, मुघलबंक्षी आदि, बंगला में बारिक, भटियारी,
चिरमार, मलपहाड़िया, सामरिया, सराकी, सिरिपुरिया आदि, मराठी में गवड़ी, कसारगोड़,
कोस्ती, नागपुरी, कुड़ाली आदि। इनमें तो कहीं भी अलग होने का आन्दोलन सुनायी नहीं
दे रहा है। बंगला तक में नहीं, जहां अलग
देश है। मैं बंगला में लिखना पढ़ना जानता हूं किन्तु ढाका की बंगला समझने में बड़ी
असुविधा होती है।
अस्मिताओं की राजनीति करने वाले कौन
लोग हैं ? कुछ गिने –चुने नेता, कुछ अभिनेता और कुछ स्वनामधन्य
बोलियों के साहित्यकार। नेता जिन्हें स्थानीय जनता से वोट चाहिए। उन्हें पता होता
है कि किस तरह अपनी भाषा और संस्कृति की भावनाओं में बहाकर गाँव की सीधी-सादी जनता
का मूल्यवान वोट हासिल किया जा सकता है।
इसी तरह भोजपुरी का अभिनेता रवि किसन यदि
भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए
संसद के सामने धरना देने की धमकी देता है तो उसका निहितार्थ समझ में आता है
क्योकि, एक बार मान्यता मिल जाने के बाद उन जैसे कलाकारों और उनकी फिल्मों को
सरकारी खजाने से भरपूर धन मिलने लगेगा। शत्रुघ्न सिन्हा ने लोकसभा में यह मांग
उठाते हुए दलील दिया था कि इससे भोजपुरी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
स्वीकार्यता और वैधानिक दर्जा दिलाने में काफी मदद मिलेगी।
बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने में वे साहित्यकार सबसे आगे हैं जिन्हें
हिन्दी जैसी समृद्ध भाषा में पुरस्कृत और सम्मानित होने की उम्मीद टूट चुकी है।
हमारे कुछ मित्र तो इन्हीं के बलपर हर साल दुनिया की सैर करते हैं और करोड़ो का
वारा- न्यारा करते है। स्मरणीय है कि नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी
मैथिनी कृति पर मिला था किसी हिन्दी कृति पर नहीं। बुनियादी
सवाल यह है कि आम जनता को इससे क्या लाभ होगा ?
एक ओर सैम पित्रोदा द्वारा प्रस्तावित ज्ञान आयोग की रिपोर्ट जिसमें इस देश के
ऊपर के उच्च मध्य वर्ग को अंग्रेज बनाने की योजना है और दूसरी ओर गरीब गँवार जनता
को उसी तरह कूप मंडूक बनाए रखने की साजिश। इस साजिश में कारपोरेट दुनिया की क्या
और कितनी भूमिका है –यह शोध का विषय है। मुझे उम्मीद है कि निष्कर्ष चौंकाने वाले
होंगे।
वस्तुत: साम्राज्यवाद की
साजिश हिन्दी की शक्ति को खण्ड-खण्ड करने की है क्योकि बोलने वालों की संख्या की
दृष्टि से हिन्दी, दुनिया की सबसे बड़ी दूसरे नंबर की भाषा है। इस देश में
अंग्रेजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिन्दी ही है। इसलिए हिन्दी को कमजोर करके इस
देश की सांस्कृतिक अस्मिता को, इस देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है।
अस्मिताओं की राजनीति के पीछे साम्राज्यवाद की यही साजिश है।
जो लोग बोलियो की वकालत करते हुए अस्मिताओं के
उभार को जायज ठहरा रहे हैं वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ा
रहे हैं, खुद व्यवस्था से साँठ-गाँठ करके उसकी मलाई खा रहे हैं और अपने आस-पास की
जनता को जाहिल और गंवार बनाए रखना चाहते हैं ताकि भविष्य में भी उनपर अपना वर्चस्व
कायम रहे। जिस देश में खुद राजभाषा हिन्दी अब तक ज्ञान की भाषा न बन सकी हो वहाँ
भोजपुरी, राजस्थानी, और छत्तीसगढ़ी के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देकर वे उन्हें
क्या बनाना चाहते है ? जिस भोजपुरी,
राजस्थानी या छत्तीसगढ़ी का कोई मानक रूप तक तय नहीं है, जिसके पास गद्य तक विकसित
नहीं हो सका है उस भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराकर उसमें मेडिकल
और इंजीनियरी की पढ़ाई की उम्मीद करने के पीछे की धूर्त मानसिकता को आसानी से समझा
जा सकता है।
अगर बोलियों और उसके साहित्य को बचाने की
सचमुच चिन्ता है तो उसके साहित्य को पाठ्यक्रमों में शामिल कीजिए, उनमें फिल्में
बनाइए, उनका मानकीकरण कीजिए। उन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करके हिन्दी से अलग
कर देना और उसके समानान्तर खड़ा कर देना तो उसे और हिन्दी, दोनो को कमजोर बनाना है
और उन्हें आपस में लड़ाना है।
मित्रो, मैं बंगाल का हूँ। बंगाल की दुर्गा पूजा मशहूर है। मैं जब भी हिन्दी
के बारे में सोचता हूं तो मुझे दुर्गा का मिथक याद आता है। दुर्गा बनी कैसे ? महिषासुर से त्रस्त सभी देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए थे। “अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा।“ अर्थात् सभी
देवताओं के शरीर से प्रक़ट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक
नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश
से तीनो लोकों में व्याप्त हो गया । तब जाकर महिषासुर का बध हो सका।
हिन्दी भी ठीक दुर्गा की तरह है। जैसे सारे देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए और
दुर्गा बनी वैसे ही सारी बोलियों के समुच्चय का नाम हिन्दी है। यदि सभी देवता
अपने-अपने तेज वापस ले लें तो दुर्गा खत्म हो जाएगी, वैसे ही यदि सारी बोलियां अलग
हो जायँ तो हिन्दी के पास बचेगा क्या ? हिन्दी का अपना
क्षेत्र कितना है ? वह दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित
हुई है। हम हिन्दी साहित्य के इतिहास में चंदबरदायी और मीरा को पढ़ते है जो राजस्थानी के हैं, सूर को पढ़ते
हैं जो ब्रजी के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते
हैं जो भोजपुरी के हैं और विद्यापति को पढ़ते है जो मैथिली के हैं। इन सबको हटा
देने पर हिन्दी साहित्य में बचेगा क्या ?
अपने पड़ोसी नेपाल में सन् 2001 में जनगणना हुई थी। उसकी रिपोर्ट के अनुसार
वहाँ अवधी बोलने वाले 2.47 प्रतिशत, थारू बोलने वाले 5.83 प्रतिशत, भोजपुरी बोलने
वाले 7.53 प्रतिशत और सबसे अधिक मैथिली बोलने वाले 12.30 प्रतिशत हैं। वहाँ हिन्दी
बोलने वालों की संख्या सिर्फ 1 लाख 5 हजार है। यानी, बाकी लोग हिन्दी जानते ही
नहीं। मैने कई बार नेपाल की यात्रा की है। काठमांडू में भी सिर्फ हिन्दी जानने से
काम चल जाएगा। नेपाल में एक करोड़ से अधिक सिर्फ मधेसी मूल के हैं। भारत से बाहर दक्षिण
एशिया में सबसे अधिक हिन्दी फिल्में यदि कहीं देखी जाती हैं तो वह नेपाल है। ऐसी
दशा में वहाँ हिन्दी भाषियों की संख्या को एक लाख पाँच हजार बताने से बढ़कर
बेईमानी और क्या हो सकती है ? हिन्दी को
टुकड़ो-टुकड़ों में बाँटकर जनगणना करायी गई और फिर अपने अनुकूल निष्कर्ष निकाल
लिया गया।
ठीक यही साजिश भारत में भी चल रही है। हिन्दी की सबसे बड़ी ताकत उसकी संख्या
है। इस देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी बोलती है और यह संख्या बल बोलियों के नाते
है। बोलियों की संख्या मिलकर ही हिन्दी की संख्या बनती है। यदि बोलियां आठवीं अनुसूची
में शामिल हो गईं तो आने वाली जनगणना में मैथिली की तरह भोजपुरी, राजस्थानी,
छत्तीसगढ़ी आदि को अपनी मातृभाषा बताने वाले हिन्दी भाषी नहीं गिने जाएंगे और तब
हिन्दी तो मातृ-भाषा बताने वाले गिनती के रह जाएंगे, हिन्दी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी और तब अंग्रेजी को भारत की राजभाषा बनाने के पक्षधर उठ खड़े
होंगे और उनके पास उसके लिए अकाट्य वस्तुगत तर्क होंगे। ( अब तो हमारे देश के अनेक
काले अंग्रेज बेशर्मी के साथ अंग्रेजी को भारतीय भाषा कहने भी लगे
हैं।) उल्लेखनीय है कि सिर्फ संख्या-बल की ताकत पर ही हिन्दी, भारत की राजभाषा के
पद पर प्रतिष्ठित है।
मित्रो, हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो
वह हिन्दी ही है। हिन्दी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द का रिश्ता
है। हिन्दी इस क्षेत्र की जातीय भाषा है जिसमे हम अपने
सारे औपचारिक और शासन संबंधी काम काज करते हैं। यदि हिन्दी की तमाम बोलियां अपने
अधिकारों का दावा करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो हिन्दी
की राष्ट्रीय छवि टूट जाएगी और राष्ट्रभाषा के रूप में उसकी हैसियत भी संदिग्ध हो
जाएगी।
इतना ही नहीं, इसका परिणाम यह भी होगा कि मैथिली, ब्रजी, राजस्थानी आदि के
साहित्य को विश्वविद्यालयों के हिन्दी पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए हमें विवश होना
पड़ेगा। विद्यापति को अबतक हम हिन्दी के पाठ्यक्रम में पढ़ाते आ रहे थे । अब हम
उन्हें पाठ्यक्रम से हटाने के लिए बाध्य हैं। क्या कोई साहित्यकार चाहेगा कि उसके
पाठकों की दुनिया सिमटती जाय़ ?
हिन्दी ( हिन्दुस्तानी ) जाति इस देश
की सबसे बड़ी जाति है। वह दस राज्यों में फैली हुई है। इस देश के अधिकाँश प्रधान मंत्री
हिन्दी जाति ने दिए हैं। भारत की राजनीति को हिन्दी जाति दिशा देती रही है। इसकी
शक्ति को छिन्न –भिन्न करना है। इनकी बोलियों को संवैधानिक दरजा दो। इन्हें
एक-दूसरे के आमने-सामने करो। इससे एक ही तीर से कई निशाने लगेंगे। हिन्दी की
संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी। हिन्दी भाषी आपस में बँटकर लड़ते रहेंगे और
ज्ञान की भाषा से दूर रहकर कूपमंडूक बने रहेंगे। बोलियाँ हिन्दी से अलग होकर
अलग-थलग पड़ जाएंगी और स्वत: कमजोर पड़कर खत्म
हो जाएंगी।
मित्रो, चीनी का सबसे छोटा दाना पानी में सबसे पहले घुलता है। हमारे ही किसी
अनुभवी पूर्वज ने कहा है, “अश्वं नैव गजं नैव
व्याघ्रं नैव च नैव च। अजा पुत्रं बलिं दद्यात दैवो दुर्बल घातक:।“
अर्थात् घोड़े की बलि नहीं दी जाती,
हाथी की भी बलि नही दी जाती और बाघ के बलि की तो कल्पना भी नही की जा सकती। बकरे
की ही बलि दी जाती है। दैव भी दुर्बल का ही घातक होता है।
अब तय हमें ही करना है कि हम बाघ की तरह बनकर रहना चाहते हैं या बकरे की तरह।
हम सबसे पहले अपने माननीय सांसदों एवं अन्य जनप्रतिनिधियों से प्रार्थना करते
हैं कि वे अत्यंत गंभीर और दूरगामी प्रभाव डालने वाली इस आत्मघाती मांग पर
पुनर्विचार करें और भावना में न बहकर अपनी राजभाषा हिन्दी को टूटने से बचाएं।
हम हिन्दी समाज के अपने बुद्धिजीवियों से साम्राज्यवाद और व्यूरोक्रेसी की
मिली भगत से रची जा रही इस साजिश से सतर्क होने और एकजुट होकर इसका पुरजोर विरोध
करने की अपील करते हैं।
अध्यक्ष, अपनी भाषा तथा प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
कलकत्ता विश्वविद्यालय
संपर्क: ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091
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